26-06-16 प्रात:मुरली ओम् शान्ति “अव्यक्त-बापदादा” रिवाइज:12-10-81 मधुबन
“वर्तमान ही भविष्य का आधार”
आज
वृक्षपति बाप अपने वृक्ष के पहले-पहले पत्तों को वा वृक्ष के आधारमूर्त
श्रेष्ठ आत्माओं को देख रहे हैं। ब्राह्मण आत्मायें ही नये वृक्ष के कलम
हैं। कलम पर ही आधार होता है– नये वृक्ष का। आप हर आत्मा नये वृक्ष के कलम
हो, इसलिए हर आत्मा अमूल्य है। सदा अपने को ऐसे अमूल्य आधारमूर्त वृक्ष का
कलम समझकर चलते हो? कलम में जो कमजोरी होगी, वह सारे वृक्ष में कमजोरी
होगी। इतनी जिम्मेवारी हर एक अपनी समझते हो? यह तो नहीं समझते कि हम छोटे
हैं वा पीछे आने वाले हैं, जिम्मेवारी बड़ों के ऊपर है। ऐसे तो नहीं समझते
हो ना? जब वर्सा लेने में नया, चाहे छोटा, चाहे बड़ा हरेक अपने को पूरा
अधिकारी समझते हो, कोई भी चन्द्रवंशी का वर्सा लेने के लिए तैयार नहीं होते
हो, सब यही हक रखते हो कि हम सूर्यवंशी बनेंगे। साथ-साथ संगमयुग की
प्राप्ति के ऊपर, बाप के ऊपर अपना पूरा हक लगाते हो। यही बोल बोलते हो कि
पहले हम छोटों का बाप है। छोटों पर ज्यादा स्नेह है बाप का, इसीलिए हमारा
ही बाबा है। पहले हमको सब अधिकार होना चाहिए। स्नेह से अपने अधिकार का
वर्णन करते हो। तो जैसे बाप के ऊपर, प्राप्ति के ऊपर अपना अधिकार समझते हो
वैसे जिम्मेवारी में भी छोटे बड़े सब अधिकारी हो। सब साथी हो। तो इतनी
जिम्मेवारी के अधिकारी समझ करके चलो। स्व-परिवर्तन, विश्व-परिवर्तन दोनों
के जिम्मेवारी के ताजधारी सो विश्व के राज्य के ताज अधिकारी होंगे।
संगमयुगी ताजधारी सो भविष्य के ताजधारी। वर्तमान नहीं तो भविष्य नहीं।
वर्तमान ही भविष्य का आधार है। चेक करो और नॉलेज के दर्पण में दोनों स्वरूप
देखो– संगमयुगी ब्राह्मण और भविष्य देवपद-धारी। दोनों रूप देखो और फिर
दोनों में चेक करो– ब्राह्मण जीवन में डबल ताज है वा सिंगल ताज है? एक है
पवित्रता का ताज, दूसरा है प्रैक्टिकल जीवन में पढ़ाई और सेवा का। दोनों
ताज समान हैं? सम्पूर्ण हैं? वा कुछ कम है? अगर यहाँ कोई भी ताज अधूरा है,
चाहे पवित्रता का, चाहे पढ़ाई वा सेवा का, तो वहाँ भी छोटे से ताज अधिकारी
वा एक ताजधारी अर्थात् प्रजा पद वाले बनना पड़ेगा क्योंकि प्रजा को भी लाइट
का ताज तो होगा अर्थात् पवित्र आत्मायें होंगी। लेकिन विश्वराजन् वा
महाराजन् का ताज नहीं प्राप्त होगा। कोई महाराजन् कोई राजन् अर्थात् राजा,
महाराजा और विश्व महाराजा, इसी आधार पर नम्बरवार ताजधारी होंगे।
इसी
प्रकार तख्त को देखो– वर्तमान समय ब्राह्मण जीवन में कितना समय अकाल
तख्तधारी और दिलतख्तधारी, दोनों तख्तनशीन कितना समय रहते हो? अकाल तख्तनशीन
निरन्तर होंगे अर्थात् सदाकाल होंगे तो दिलतख्तनशीन भी सदाकाल होंगे।
दोनों का सम्बन्ध है। ब्राह्मण जीवन में कभी-कभी तख्तनशीन तो भविष्य में भी
पूरा आधाकल्प तख्तनशीन अर्थात् रॉयल फैमली में नहीं आ सकते क्योंकि रॉयल
फैमली ही तख्तनशीन गाई जाती है। तो यहाँ के सदाकाल के तख्तनशीन सो भविष्य
सदाकाल के राज्य अधिकारी अर्थात् तख्तनशीन। तो दर्पण में देखो– वर्तमान
क्या और भविष्य क्या? इसी रीति तिलक को चेक करो– अविनाशी अर्थात् अमिट
तिलकधारी हो? संगमयुग पर ही देवों के देव के सुहाग और परमात्म वा ईश्वरीय
सन्तान के भाग्य का तिलक प्राप्त होता है। तो यह सुहाग और भाग्य का तिलक
अविनाशी है? माया सुहाग वा भाग्य का तिलक मिटा तो नहीं देती है? यहाँ के
सुहाग, भाग्य के सदा तिलकधारी सो भविष्य के सदा राज्य-तिलकधारी। हर जन्म
में राज्य तिलक का उत्सव होगा। राजा के साथ रॉयल फैमली का भी तिलक-दिवस
मनाया जाता है। वहाँ के हर जन्म के राज तिलक का उत्सव और यहाँ ब्राह्मण
जीवन में सदा बाप से मिलन मेले का, स्वयं की सदा चढ़ती कला का, हर प्रकार
की सेवा का अर्थात् तन-मन-धन-जन सबकी सेवा का सदा उत्साह और उमंग होगा। तो
अब का उत्साह और भविष्य का उत्सव होगा।
इसी प्रकार तन-मन-धन का
सम्बन्ध है। यहाँ आदि से अब तक और अब से अन्त तक अपने तन को कितना समय सेवा
में समर्पण किया? मन को कितना समय याद और मंसा सेवा में लगाया? मंसा सेवा
है शुभ भावना और श्रेष्ठ कामना। इसमें भी सेवा हद की रही वा बेहद की रही?
सर्व के प्रति शुभ भावना और श्रेष्ठ कामना रही वा कोई के प्रति रही, कोई के
प्रति नहीं रही? इसी प्रकार धन, स्व प्रति लगाते हैं, स्वार्थ से लगाते
हैं वा नि:स्वार्थ सेवा में लगाते हैं? अमानत में ख्यानत तो नहीं डालते
हैं? बेहद के बजाए हद में तो न्हीं लगाते हैं? इस चेकिंग के आधार पर वहाँ
भी प्रालब्ध में परसेन्टेज के आधार पर नम्बरवार पद की प्राप्ति होती है। सब
में फुल परसेन्ट तो फुल समय और फुल प्रालब्ध। नहीं तो स्टेटस में और समय
में अन्तर हो जाता है। फुल समय वाले और फुल प्रालब्ध वाले वन-वन-वन के संवत
से पहला-पहला सम्पूर्ण फुल सतोप्रधान प्रकृति, फुल राज्य-भाग्य, संवत भी
वन, प्रालब्ध भी वन, प्रकृति का सुख भी वन। नहीं तो फिर सेकेण्ड, थर्ड यह
शुरू हो जायेगा।
अब दोनों रूप से चेक करो– ब्राह्मण और देवता।
संगमयुगी और सतयुगी, दोनों स्वरूप को सामने रखो। संमगयुग में है तो सतयुग
में होगा ही, निश्चित है इसलिए ब्राह्मण जीवन के 16 रूहानी श्रृंगारों को
देखो। 16 कलाओं को देखो। स्वयं ही स्वयं को देखो, जो कमी देखो वह अब भरते
चलो। समझा– क्या करना है? स्व को दर्पण में देखो। अच्छा-
आज
महाराष्ट्र का टर्न है तो महान बनने की बातें सुनायेंगे ना? महाराष्ट्र
अर्थात् अब के भी महान और भविष्य में भी महान। अच्छा। ऐसे बेहद के
सेवाधारी, सर्व प्रति सदा शुभचिन्तन, सदा याद और सेवा के उत्साह में रहने
वाले, सदा के सुहाग और भाग्य के तिलकधारी, ऐसे वर्तमान के राज्य अलंकारी,
श्रेष्ठ आत्माओं को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।
आज बीच-बीच में
बिजली बहुत आ जा रही थी– तो बाबा बोले, बिजली की हलचल में बुद्धि की हलचल
तो नहीं? आपके इस साकार सृष्टि का गीत है जो भक्त लोग गाते हैं, बाप को
कहते हैं `देख तेरे संसार की हालत क्या हो गई'... तो बाप भी देख रहे हैं,
भक्तों का आवाज भी आ रहा है और देख भी रहे हैं। जब नाम ही है असार संसार तो
किसी भी साधन में सार क्या होगा? अच्छा।
महाराष्ट्र जोन की पार्टियों से अव्यक्त बापदादा की मधुर मुलाकात:-
1-
संगमयुग का बड़े ते बड़ा खजाना कौन सा है? बाप ही सबसे बड़े ते बड़ा खजाना
है। बाप मिला तो सब कुछ मिला। बाप नहीं तो कुछ नहीं। तो सतयुग में भी यह
बड़े ते बड़ा खजाना नहीं होगा। प्रालब्ध होगी, यह खजाना नहीं होगा। तो ऐसे
युग में, जो सब खजाना मिलता है। संगमयुग में सतयुग से भी श्रेष्ठ खजाना
मिलता है। तो ऐसे युग में, जो सब खजाने प्राप्त होने का युग है और प्राप्त
करने वाली आत्मायें भी आप ही हो, तो ऐसी आत्मायें सम्पन्न होंगी ना।
ब्राह्मणों के जीवन में अप्राप्त नहीं कोई वस्तु। देवताओं के जीवन में बाप
की अप्राप्ति होगी, लेकिन ब्राह्मणों के जीवन में कोई भी अप्राप्ति नहीं।
तो मन का अविनाशी गीत यही बजता रहता है कि अप्राप्त नहीं कोई वस्तु हम
ब्राह्मणों के खजाने में! खजानों के मालिक हो कि बनना है? बालक बनना
अर्थात् मालिक बनना। मालिक तो बन गये बाकी सम्भालना कहाँ तक आता है, यह हर
एक का नम्बरवार है। तो सदा इसी खुशी में नाचते रहो कि मैं बालक सो मालिक
हूँ!
2- सभी निश्चयबुद्धि विजयन्ती हो ना! निश्चय में कभी डगमग तो
नहीं होते हो? अचल, अडोल, महावीर हो ना? महावीर की विशेषता क्या है? सदा
अचल अडोल, संकल्प वा स्वप्न में भी व्यर्थ संकल्प न आए, इसको कहा जाता है
अचल, अडोल, महावीर। तो ऐसे हो ना? जो कुछ होता है– उसमें कल्याण भरा हुआ
है। जिसको अभी नहीं जानते लेकिन आगे चल करके जानते जायेंगे। कोई भी बात एक
काल की दृष्टि से नहीं देखो, त्रिकालदर्शी हो करके देखो। अब यह क्यों? अब
यह क्या? ऐसे नहीं, त्रिकालदर्शी होकर देखने से सदा यही संकल्प रहेगा कि जो
हो रहा है उसमें कल्याण है। ऐसे ही त्रिकालदर्शी होकर चलते हो ना? सेवा के
आधारमूर्त जितने मजबूत होंगे उतनी सेवा की बिल्डिंग भी मजबूत होगी। जो
बाबा बोले वह करते चलो, फिर बाबा जाने बाबा का काम जाने। जैसे बाबा चलाये
वैसे चलो तो उसमें कल्याण भरा हुआ है। बाबा कहे ऐसे चलो, ऐसे रहो– जी हाजर,
ऐसे क्यों? नहीं। जी हाजर। समझा– जी हजूर वा जी हाजर। तो सदा उड़ती कला
में जाते रहेंगे। रूकेंगे नहीं, उड़ते रहेंगे क्योंकि हल्के हो जायेंगे ना।
3- सभी अपने को सदा विश्व के अन्दर कोटों में कोई, कोई में भी
कोई, ऐसी श्रेष्ठ आत्मायें समझते हो? ऐसे अनुभव होता है कि यह हमारा ही
गायन है? एक होता है ज्ञान के आधार पर जानना, दूसरा होता है किसी का अनुभव
सुनकर उस आधार पर मानना और तीसरा होता है स्वयं अनुभव करके महसूस करना। तो
ऐसे महसूस होता है कि हम कल्प पहले वाली कोटों में से कोई, कोई में से कोई
श्रेष्ठ आत्मायें हैं? ऐसी आत्माओं की निशानी क्या होगी? ऐसी श्रेष्ठ
आत्मायें सदा बाप शमा के पीछे परवाने बन फिदा होने वाली होंगी। चक्कर लगाने
वाली नहीं। आए चक्कर लगाया, थोड़ी सी प्राप्ति की, ऐसे नहीं। लेकिन फिदा
होना अर्थात् मर जाना– ऐसे जल मरने वाले परवाने हो ना? जलना ही बाप का बनना
है। जो जलता है वही बनता है। जलना अर्थात् परिवर्तन होना। अच्छासदा हर
परिस्थिति में एकरस स्थिति रहे, उसका सहज साधन क्या है? क्योंकि सभी का
लक्ष्य एक है, जैसे एक बाप, एक घर, एक ही राज्य होगा, ऐसे अभी भी एकरस
स्थिति। लेकिन एकरस स्थिति में रहने का सहज साधन क्या मिला है? एक शब्द
बताओ? वह एक शब्द है ट्रस्टी। अगर ट्रस्टी बन जाते तो न्यारे और प्यारे
होने से एकरस हो जाते। जब गृहस्थी हैं तो अनेक रस हैं, मेरा-मेरा बहुत हो
जाता है। कभी मेरा घर, कभी मेरा परिवार,.... गृहस्थीपन अर्थात् अनेक रसों
में भटकना। ट्रस्टीपन अर्थात् एकरस। ट्रस्टी सदा हल्का और सदा चढ़ती कला
में जायेगा। तो यह सारा ग्रुप ट्रस्टी ग्रुप है ना। जरा भी मेरापन है तो
मेरा माना गृहस्थीपन। जहाँ मेरापन होगा वहाँ ममता होगी। ममता वाले को
गृहस्थी कहेंगे, ट्रस्टी नहीं। गृहस्थी तो आधाकल्प रहे और गृहस्थीपन के
जीवन में क्या प्राप्ति हुई, उसका भी अनुभव किया। अब ट्रस्टी बनो। अगर
थोड़ा भी गृहस्थीपन हो तो मधुबन में छोड़कर जाना। जो दु:ख की लहर पैदा करने
वाला हो उसे छोड़कर जाना और जो सुख देने वाला हो उसे लेकर जाना। अच्छा।
मीठी दादी जी अम्बाला मेले में जाने की छुट्टी बापदादा से ले रही हैं,
बापदादा
बोले:- बापदादा अनेक बच्चों की खुशी देखकर खुश होते हैं! सेवा के लिए जहाँ
भी जाओ, अनेक खजाने अनेकों को मिल जाते हैं इसलिए ड्रामा में अब तक जाने
का है, तो चल रहा है, स्टॉप होगा तो सेकेण्ड में हो जायेगा। जैसे साकार में
देखा, तैयारी की हुई भी थी, पार्ट समाप्त था तो तैयारी होते भी नहीं जा
सके। ऐसे यह भी ड्रामा में समाप्त होगा तो सेकेण्ड में अचानक होगा। अब तक
तो जाना भी है, रिफ्रेश करना भी है। सबके दिल को खुश करना– यह भी सबसे बड़ा
पुण्य है। सबका आह्वान है ना। आह्वान में प्रत्यक्ष होना ही पड़ता है। जड़
चित्रों का भी आह्वान करते हैं तो उसमें भी जान अनुभव होती है। तो यह
आह्वान करना भी शुरू यहाँ से ही होता है इसलिए सभी को यादप्यार देते हुए
यही कहना कि अभी वाचा के साथ-साथ संकल्प शक्ति की सेवा, जो ही अन्तिम
पावरफुल सेवा है, वह भी करो। संकल्प शक्ति और वाणी की शक्ति, मंसा सेवा और
वाणी की सेवा दोनों का जब कम्बाइन्ड रूप होगा तब सहज सफलता होगी। सिंगल से
सिंगल रिजल्ट है, कम्बाइन्ड सेवा से दुगनी रिजल्ट होगी। पहले संकल्प शक्ति
फिर है वाणी की शक्ति। तो मंसा और वाचा दोनों सेवा साथ-साथ चाहिए। वाणी में
मंसा सेवा न हो सके, यह भी नहीं और मंसा में वाणी न बोल सके– यह भी नहीं।
वाणी की सेवा करने वाले थोड़े होते हैं, बाकी रेख देख करने वाले, दूसरे
कार्य में जो रहते हैं उन्हें मंसा सेवा करनी चाहिए। इससे वायुमण्डल
योगयुक्त बनता है। संगठन में मिलन ज्यादा होता है, लेकिन मिलन के साथ सेवा
का भी लक्ष्य हो। हरेक समझे हमें सेवा करनी है फिर वातावरण पावरफुल रहेगा
और सेवा भी डबल हो जायेगी। उमंग उत्साह से कर रहे हैं यह बहुत अच्छा है!
लेकिन उमंग उत्साह के साथ-साथ यह भी लक्ष्य जरूरी है। अच्छा-सभी को
बहुत-बहुत याद देना।
वरदान:
साधारणता द्वारा महानता को प्रसिद्ध करने वाले सिम्पल और सैम्पुल भव! 
जैसे
कोई सिम्पल चीज अगर स्वच्छ होती है तो अपने तरफ आकर्षित जरूर करती है। ऐसे
मन्सा के संकल्पों में, सम्बन्ध में, व्यवहार में, रहन सहन में जो सिम्पल
और स्वच्छ रहते हैं वह सैम्पल बन सर्व को अपनी तरफ स्वत: आकर्षित करते हैं।
सिम्पल अर्थात् साधारण। साधारणता से ही महानता प्रसिद्ध होती है। जो
साधारण अर्थात् सिम्पल नहीं वह प्राब्लम रूप बन जाते हैं।
स्लोगन:
दिल से कहो मेरा बाबा तो माया की बेहोशी से बंद आंखे खुल जायेंगी। 
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